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देवता: पूषा ऋषि: कण्वो घौरः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

न पू॒षणं॑ मेथामसि सू॒क्तैर॒भि गृ॑णीमसि । वसू॑नि द॒स्ममी॑महे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na pūṣaṇam methāmasi sūktair abhi gṛṇīmasi | vasūni dasmam īmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न । पू॒षण॑म् । मे॒था॒म॒सि॒ । सू॒क्तैः । अ॒भि । गृ॒णी॒म॒सि॒ । वसू॑नि । द॒स्मम् । ई॒म॒हे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:42» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उसका आश्रय लेकर कैसे होना वा क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (सूक्तैः) वेदोक्त स्तोत्रों से (पूषणम्) सभा और सेनाध्यक्ष को (अभिगृणीमसि) गुण ज्ञानपूर्वक स्तुति करते हैं (दस्मम्) शत्रु को (मेथामसि) मारते हैं। (वसूनि) उत्तम वस्तुओं को (ईमहे) याचना करते हैं और आपस में द्वेष कभी (न) नहीं करते वैसे तुम भी किया करो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में श्लेषालंकार है। किसी मनुष्य को नास्तिक वा मूर्खपन से सभाध्यक्ष की आज्ञा को छोड़ शत्रु की याचना न करनी चाहिये किन्तु वेदों से राजनीति को जानके इन दोनों के सहाय से शत्रुओं को मार विज्ञान वा सुवर्ण आदि धनों को प्राप्त होकर उत्तम मार्ग में सुपात्रों के लिये दान देकर विद्या का विस्तार करना चाहिये ॥१०॥ इस सूक्त में पूषन् शब्द का वर्णन शक्ति का बढ़ाना, दुष्ट शत्रुओं का निवारण संपूर्ण ऐश्वर्य्य की प्राप्ति सुमार्ग में चलना, बुद्धि वा कर्म का बढ़ाना कहा है। इससे इस सूक्त के अर्थ के संगति पूर्व सूक्तार्थ के साथ जाननी चाहिये। यह पच्चीसवां वर्ग २५ और बयालीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥४२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(नः) निषेधार्थे (पूषणम्) पूर्वोक्तं सभासेनाध्यक्षम् (मेथामसि) हिंस्मः (सूक्तैः) वेदोक्तैः स्तोत्रैः (अभि) सर्वतः (गृणीमसि) स्तुमः। अत्रोभयत्र मसिरादेशः। (वसूनि) उत्तमानि धनानि (दस्मम्) शत्रुम् (ईमहे) याचामहे ॥१०॥

अन्वय:

तमाश्रित्य कथं भवितव्यं किं च कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या यथा वयं सूक्तैः पूषणं सभासेनाद्यध्यक्षमभिगृणीमसि दस्मं मेथामसि वसूनीमहे परस्परं कदाचिन्न द्विष्मस्तथैव यूयमप्याचरत ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालंकारः। न केनचिन्मूर्खत्वेन सभासेनाध्यक्षाश्रयं त्यक्त्वा शत्रुर्याचनीयः किन्तु वेदै राजनीतिं विज्ञाय सुसहायेन शत्रन् हत्वा विज्ञानसुवर्णादीनि धनानि प्राप्य सुपात्रेभ्यो दानं दत्वा विद्या विस्तारणीया ॥१०॥ अत्र पूषन्शब्दवर्णनं शक्तिवर्द्धनं दुष्टशत्रुनिवारणं सर्वैश्वर्यप्रापणं सुमार्गगमनं बुद्धिकर्मवर्द्धनं चोक्तमस्त्यतोस्यैकचत्वारिंशसूक्तार्थेन सहैतदर्थस्य संगतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति पंचाविंशतितमो वर्गो द्विचत्वारिंश सूक्तं च समाप्तम् ॥४२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. एखाद्या माणसाने नास्तिकतेने, मूर्खपणाने सभाध्यक्षाची आज्ञा न पाळता शत्रूची याचना करता कामा नये, तर वेदाद्वारे राजनीती जाणून या दोहोच्या साह्याने शत्रूंना मारून विज्ञान किंवा सुवर्ण इत्यादी धन प्राप्त करून उत्तम मार्गाने सुपात्रांसाठी दान देऊन विद्येचा विस्तार केला पाहिजे. ॥ १० ॥